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जातीय जनगणना: आरक्षण की नई राजनीतिक चुनौतियाँ और प्रतिक्रियाएँ

जातीय जनगणना के असर का प्रकट होना शुरू हो चुका है। कर्नाटक जैसे कांग्रेस प्रशासित राज्य में ओबीसी के लिए स्थानीय चुनावों में 33% आरक्षण का प्रस्ताव मांग किया गया है। यह अंतर्निहित है कि ग़ैर भाजपा राज्य इस प्रकार के आरक्षण की ओर बढ़ सकते हैं।

भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जातीयता पर आलोचना की हो, लेकिन भाजपा की अगली चरण में ओबीसी आरक्षण को लेकर क्या कदम उठाए जाएंगे, यह अभी स्पष्ट नहीं है।

आरक्षण का दिशा-निर्देश देश की राजनीतिक स्थिति को निर्धारित करेगा। जिस तरह मंडल-कमण्डल का माहौल जनगणना ने 90s में पैदा किया था, उसी प्रकार यह नई जातीय जनगणना भी राजनीतिक रंग-भूमि में परिवर्तन ला सकती है।

उन लोगों के लिए जिन्होंने मंडल आंदोलन का दौर देखा है, उन्हें यह स्पष्ट है कि जातीय आरक्षण की मांग और उसका प्रभाव कितना गहरा होता है। वीपी सिंह ने मंडल आयोग के आरक्षण को पुरानी समस्या के रूप में छोड़ दिया, जिससे आज तक राजनीति प्रभावित हो रही है।

देश के ज्यादातर राजनीतिक दलों की मजबूरी है कि वे आरक्षण को समर्थन दें। जैसे ही किसी वर्ग के आरक्षण को हटाया जाएगा, उस वर्ग से नाराज़ी का सामना करना पड़ेगा, जिसकी कोई भी सरकार या राजनीतिक दल जोखिम नहीं उठा सकता।

आज़ादी के बाद अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षण केवल दस साल के लिए प्रस्तावित किया गया था, जिसे बार-बार बढ़ाया जा रहा है। यह नई जातीय जनगणना के साथ आने वाले आरक्षण का तूफ़ान एक नया मोड़ ला सकता है और यह संकेत है कि किसी भी राजनीतिक दल को इस तूफ़ान को रोकना मुश्किल हो सकता है।